Sunday, September 16, 2012

जिंदगी की मीठी सी कविता है ‘बर्फी’




जिंदगी को एक उत्‍सव की तरह जीने और गीत की तरह गुनगुनाने के फ़लसफ़े पर हिन्‍दी सिनेमा ने पहले भी कई अध्‍याय लिखे हैं पर ‘बर्फी’ जिंदगी के हर एक पल को हर हालत में मुस्‍कुराहट और खुशमिज़ाजी के साथ जीने का नया सबक सिखाती है. प्‍यार अगर निश्‍छल हो तो जिंदगी कठोर होने के बावजूद बोझिल नहीं होती. अनुराग बसु की ‘बर्फी’ दार्जिलिंग की वादियों में रूई जैसे नरम और निश्‍छल प्‍यार की मीठी सी छुअन से पूरे दो घंटा पैंतीस मिनट तक हमें सराबोर रखती है और एक बार फिर शहर की भागम-भाग से दूर ले जाकर सोचने का मौका देती है कि जो जिंदगी हम जी रहे हैं क्‍या उसे वैसे ही जिया जाना चाहिए ?

फिल्‍म शुरू होने के बाद कुछ ही पलों में ही हमें अहसास होने लगता है कि जिंदगी कितनी ख़ूबसूरत और पवित्र है. बस हमें जीना आना चाहिए. इसके रास्‍ते में आने वाली रुकावटों और असफलताओं पर बर्फी की तरह ही बड़ी सी स्‍माइल देकर आगे बढ़ जाना चाहिए. जिंदगी लाख कोशिश करे पर हम जिंदगी के लिए अपना प्रेम कम न होने दें. हर पल को खुल कर जिएं, हर पल में मुस्‍कुराएं, हमेशा दौडें नहीं बल्कि ठहर कर वक्‍त की हथेली पर छोटे-छोटे पलों को रखकर उन से बात करें.

        फिल्‍म के तीन प्रमुख पात्रों में से एक बर्फी (रणबीर कपूर) गूंगा और बहरा है और दूसरी झिलमिल (प्रियंका चोपड़ा) ऑटिज्‍़म से ग्रस्‍त है. डिसएबल्‍ड लोगों की जिंदगी के बारे में नॉमर्ल लोगों की अवधारणा और तमाम मिथकों को तोड़ती यह फिल्‍म डिसएबल्ड लोगों को करीब से समझने का एक नया नज़रिया देती है. पर ये फिल्‍म अपंगता या असमर्थता के बारे में कतई नहीं है. दार्जिलिंग की पहाडि़यों में रहने वाला मर्फी या फिर बर्फी बोल और सुन नहीं सकता पर इतना जिंदादिल है कि न वह खुद अपनी असमर्थताओं को महसूस करता है न ही किसी और को करने देता है. बर्फी गूंगा जरूर है पर खामोश नहीं है, वह बहरा है पर सबके दिल की बात साफ-साफ सुन सकता है. बर्फी के हाव-भाव इतने स्‍पष्‍ट और मुखर हैं कि उसे संवादों की जरूरत ही नहीं है. पूरी फिल्‍म में बर्फी ने बमुश्किल दो से तीन बार सिर्फ अपना नाम बोलने की नाकाम सी कोशिश की है पर वह हमें हर दृश्‍य में सुनाई देता है. बर्फी की आंखे और चेहरे की भंगिमाएं संवाद कौशल की नई परिभाषा हैं.

      पूरी फिल्‍म की कहानी मिसेज सेनगुप्‍ता (इलियाना डीक्रूज) की जुबानी फलैश बैक में चलती है. कहानी बर्फी, श्रुति और झिलमिल की आपस की दोस्‍ती और प्‍यार के संबंधों पर आधारित है. प्रेम त्रिकोण होते हुए इसे प्रेम त्रिकोण नहीं कहा जा सकता क्‍योंकि ये एक सीधे और साफ दिल के लोगों की कहानी है जहां वे दिमाग से नहीं दिल से काम लेते हैं. बार बार कमजोर पड़ते हैं पर टूटते नहीं हैं. एक दिन एक अमीर घर की बंगाली लड़की श्रुति (इलियाना डि क्रूज) को देखते ही बर्फी दिल दे बैठता है और श्रुति भी बर्फी की सादगी और जिंदादिली के साथ पूरी जिंदगी बिताने को तैयार है. पर श्रुति को न चाहते हुए भी बर्फी की जिंदगी से जाना पड़ता है और फिर बर्फी की मुलाकात होती है अपने बचपन की दोस्‍त झिलमिल से जिसे बरसों पहले अपनी बीमारी के चलते परिवार के लोगों ने खुद से दूर कर दिया था. झिलमिल जिस प्‍यार और अपनेपन से बरसों से वंचित रही है वह उसे बर्फी से मिला. मगर एक दिन श्रुति फिर बर्फी की जिंदगी में लौट आती है. फिल्‍म का कथानक इन पात्रों के इर्द-गिर्द बड़ी सादगी से बुना गया है.

      ऐसा नहीं है कि ‘बर्फी’ कोई कालजयी फिल्‍म है या इससे बेहतर फिल्‍म अब बन ही नहीं सकती पर ‘बर्फी’ में अनुराग बसू ने अपने निर्देशन से जो कर दिखाया है वह भारतीय सिनेमा में अपने अलहदा ट्रीटमेंट के लिए हमेशा याद रखी जाएगी. दो-दो डिसएबल्‍ड पात्रों को केन्‍द्र में रखकर और लगभग न के बराबर संवादों वाली एक हंसती खिलखिलाती फिल्‍म बनाना यकीनन आसान काम नहीं है, पर अपनी जानदार कहानियों के लिए पहचान रखने वाले अनुराग बसु ने यह एक बार फिर कर दिखाया है. बर्फी जवाब है उन फिल्‍मकारों के लिए जो सैक्‍स और अश्‍लीलता को दर्शकों की मांग कहकर घटिया फिल्‍में परोस रहे हैं. दर्शक पेट भर कर अच्‍छा सिनेमा देखना चाहता है ...पर आप अच्‍छा सिनेमा बनाएं तो सही. फिल्‍म को परफैक्‍ट कहना तो शायद गलत होगा क्‍योंकि अनुराग लाख चाहने के बावजूद कई पेच ढ़ीले छोड़ गए हैं. जगह-जगह पर जरूरत से ज्‍यादा लंबे दृश्‍य और बार-बार फलैशबैक और वर्तमान के झटके खाती फिल्‍म दर्शकों को दिमाग पर जोर डालने के लिए मजबूर करती दिखी. कहीं-कहीं अनुराग जबरदस्‍ती दृश्‍यों को और मीठा बनाने की कोशिश करते दिखे. फिल्‍म में झिलमिल की किडनैपिंग का सीक्‍वेंस थोड़ा गफलत से भरा था और अंतिम दृश्‍यों में नाटकीयता झलकती है. पर इन कमजोरियों के बावजूद दर्शक ‘बर्फी’ को एक मीठा-मीठा एंटरटेनमेंट मान रहा है. अकेला बर्फी अपने कंधे पर पूरी फिल्‍म को लेकर जो दौड़ गया है.


पर्दे पर बर्फी जिंदगी का महाकाव्‍य रच रहा है. बर्फी हमें सिखाता है कि खुशियां छोटी-छोटी चीजों में होती हैं, हथेली भर पानी में भी जहाज तैरते हैं और कागज की चिडिया के भी पंख होते हैं. बर्फी की प्‍यारी सी मुस्‍कुराहट बार बार हमारे दिल के तारों को झनझनाती है. लेकिन बर्फी की एक प्रोब्‍लम है उसे लगता है कि लोग एक दिन उसे छोड़ कर चले जाएंगे इसलिए वह अपने दोस्‍तों की परीक्षा लेता है लेकिन दोस्‍ती भी पूरे दिल से निभाता है. प्‍यार के बदले प्‍यार चाहता है और जब नहीं मिलता तो दिल तो टूटता है... पर ज्‍यादा देर के लिए नहीं क्‍योंकि बर्फी सिर्फ और सिर्फ मुस्‍कुराकर जिंदगी जीना जानता है. फिल्‍म के एक दृश्‍य में जब श्रुति पहले से सगाई के बंधन में बंधी होने कारण उसका प्‍यार ठुकरा देती है तो बर्फी अपना दिल बच्‍चे की तरह खोल कर रख देता है. शहर के क्‍लॉक टावर पर चढ़कर घडी की सुंइयों को 15 मिनट पीछे खिसका कर वो श्रुति को कहता है कि ‘तुम भूल जाओ वो सब जो मैंने अभी कहा है, मानो कि मैं तुमसे कभी मिला ही नहीं, मान लो कि मैंने तुमसे कुछ कहा ही नहीं, मान लो तुमने नया दोस्‍त बनाया है जिसका नाम बर्फी है, मान लो कि तुम्‍हारी शादी में बर्फी नाच रहा है....और जब इतना कुछ मान ही लिया है तो मान भी जाओ और मुस्‍कुराकर हाथ हिलाओ’

इस फिल्‍म को दिल छू लेने वाले उन जादुई दृश्‍यों के लिए बार-बार देखा जा सकता है जिनमें बर्फी स्‍वैटर में हाथ डालकर अपना अदृश्‍य दिल निकाल कर श्रुति को देता है, या फिर जब-जब अंगूठे और तर्जनी को फैला कर बार बार मुस्‍कुराना सिखाता है. उसकी मुस्‍कान मारक है और सीधे दिल में उतर जाती है. पुलिस इंसपैक्‍टर (सौरभ शुक्‍ला) के साथ बार-बार होने वाली दौड़ के दृश्‍य बर्फी के अंदर छिपे चार्ली चैपलिन या फिर मिस्‍टर बीन की याद दिलाते हैं और खूब गुदगुदाते हैं. चुनौतीपूर्ण किरदारों के बावजूद बेहरीन अभिनय के लिए रणबीर कपूर और प्रियंका चोपड़ा की जितनी भी तारीफ की जाए कम है.  साउथ सायरन इलियाना डीक्रूज ने हिंदी फिल्‍मों में जोरदार दस्‍तक दी है. फिल्‍म के संवाद प्रभावी है और जहां संवाद नहीं हैं वहां बैकग्राउंड में चलता संगीत हर दृश्‍य में जान फूंक देता है. स्‍वानंद किरकिरे, नीलेश मिश्र, सईद कादरी और आशीष पंडित के गीत और प्रीतम का संगीत भी बर्फी की तरह ताजगी से भरे हुए हैं. इस फिल्‍म को रवि वर्मन की सिनेमैटोग्राफी के लिए भी बार-बार देखा जा सकता है. दार्जिलिंग जैसी खूबसूरत जगह को इससे पहले शायद ही इतनी खूबसूरती से पर्दे पर देखा जा सका हो.

बर्फी जैसी फिल्‍में बॉलीवुड में रोज-रोज नहीं बनती क्‍योंकि ऐसी फिल्‍में दिमाग लगा कर नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ दिल से बनाई जा सकती हैं. ये विशुद्ध रूप से सिनेमा है. ये जादुई फिल्‍म आपको भी भीतर तक प्‍यार के दरिया में डूबकर एक रूहानी सुकून का अहसास करने का मौका जरूर देगी.

मैं फिल्‍मों को पांच में से अंक देने की प्रथा में यकीन नहीं रखता क्‍योंकि कुछ चीजों को पैमाने पर नहीं रखा जा सकता और ‘बर्फी’ उनमें से एक है. बस इतना ही कहूंगा कि यदि जिंदगी को जीने का अंदाज सीखना है तो एक बार बर्फी से मिल आइये. वो आपका इंतजार कर रहा है...

और जिंदगी कितनी भी टफ हो हमेशा याद रखें ‘डोन्‍ट वरी बी बर्फी’ J

Tuesday, August 28, 2012

नए नायक की नई परिभाषा है गैंग्‍स्‍ा ऑफ वासेपुर....



पर्दे पर गैंग्‍स ऑफ वासेपुर पार्ट 2 एक बार फिर गोलीबारी, गालीबारी, डकैती, बकैती, हरामखोरी, दबंगई और बदले की आग के नरक से होकर गुजर रही है. फिल्‍म कहीं पहुंचने की जल्‍दी में नहीं है इसलिए लोकल के रफ्तार से हर अहम मोड़ पर रूक कर हमें उससे जोड़कर आगे बढ़ती है. किरदारों की भीड़ है इसलिए सबको समझना और उनकी दूसरे किरदारों के साथ रंजिशें और मौहब्‍बतें भी समझनी जरूरी हैं. पात्रों की इस भीड़ के बीच एक नया नायक जन्‍म ले रहा है. नाम है फैज़ल खान (नवाजुद्दीन सिद्धिकी). फैज़ल जो है वह उसने कभी बनना नहीं चाहा. उसे फैज़ल खान बनाया हालातों ने.

बदले की जो आग अपने बाप शाहिद खान की मौत के बाद से सरदार खान के दिल में सुलगती थी, सरदार खान की मौत के बाद उसके बेटे दानिश खान के सीने में जलने लगी और अब दानिश की मौत के बाद फैज़ल खाने के सीने में. वासेपुर, वहां का माफिया, बदमाशी, रंगदारी, काले धंधे, वासेपुर के बाशिंदों की जिंदगी, रामाधीर सिंह और सुल्‍तान सब वही हैं बस बदले की आग शरीर बदल रही है. और इस बार इस आग ने एक ऐसे शख्‍स को चुना है जिसके अंदर आग नहीं बल्कि मोहसिना के लिए मौहब्‍बत के फूल खिल रहे हैं. बॉलीवुड जिसके भीतर तक घुसा हुआ है, अमिताभ बच्‍चन खून में घुल चुका है...और उसके सपनों की दुनियां बहुत रंगीन है. पर सबकी जिंदगी रंगीन नहीं होती ... कुछ की कोयले सी काली भी होती है. जिंदगी में सब अपने चाहने से कहां होता है? फैजल के साथ भी नहीं हुआ. हमने फिल्‍मी पर्दे की मां को अक्‍सर अपनी औलाद को ख़ून ख़राबे से दूर रहने की हिदायत देते देखा है पर यहां फैज़ल की मां के ताने ‘फैज़ल, कब खून खौलेगा रे तेरा, गांजा के नशा में धुत था जब तेरे अब्‍बू को मार दिया, और अब दिन दहाड़े भाई को मरवा दिया, तुम्‍हरे हाथ से कब चलेगा रे गोली....’ ने तय कर दिया था उसकी जिंदगी का मकसद. और मां को वचन दिया ‘बाप का, दादा का, भाई का. सबका बदला लेगा तेरा फैज़ल.

साढ़े पांच घंटे के सफर में (भाग 1 और 2 एक साथ देखने पर) फिल्‍म जिस नैचुरैलिटी से आगे बढ़ती है हम भूल जाते हैं कि हम थियेटर में हैं. लगता है कि हम वासेपुर में ही हैं. और फैज़ल वही सब कर रहा है जो हम उन हालातों में खुद चाहते हैं. जिस ‘तेरी कह के लूंगा’ को सरदार खान ने शुरू किया फैज़ल ने हर पल जिया. एक बेपरवाह, नशेडी और अपनी ही दुनिया में मस्‍त आदमी कैसे मा‍फिया डॉन बनता है ये देखना और समझना अपने आप में एक अनुभव है. फैज़ल अंदर बाहर से लगातार बदलता है और हमें पता तक नहीं चलता. यह एक अनूठा सिनेमाई अनुभव है जिसे किरदार के अंदर घुस कर ही महसूस किया सकता है. जिन दृश्‍यों में फैज़ल खामोश है वहां उसकी खामोशी उसके संवादों पर भारी पड़ रही है. बोलने के लिए उसकी आंखें ही काफी है. फिल्‍म नए नायक की नई परिभाषाऐं गढ़ रही हैं. ये नया नायक हमारे बौलीवुड के नायकों से अलग एक आम आदमी की तरह बिहेव करता है. जैसे असल जिंदगी में किसी से बदला लेने के लिए हम सही वक्‍़त और मौके का इंतजार करते हैं ठीक वैसे ही फैज़ल करता है. हां, बदला लेने के लिए निकलने से पहले अपनी मां के माथे को चूम के जाने का अंदाज उसे थोड़ा फिल्‍मी टच जरूर देता है.

फिल्‍में फैज़ल खून में इस कदर घुली हुई हैं कि फजलू का गला रेतने से पहले अपने हालात भी वह फिल्‍मी भाषा में बयां करता है. ‘हम तो सोचते थे कि संजीव कुमार के घर में हम बच्‍चन पैदा हुए हैं, लेकिन जब आंख खुली तो देखा साला हम तो शशि कपूर हैं. बच्‍चन तो कोई और है.’ लकिन ये शशि कपूर अब खलनायक में बदल रहा था. यही वो मोड़ था जहां फैज़ल, फैज़ल खान बनने लगा. वासेपुर में उसका दबदबा बढ़ने लगा...लोग ड़रने लगे और लोहे का व्‍यापार अब उसके हाथ के नीचे था.

पर अभी भी फैज़ल खान के भीतर मोहसिना का शर्मीला आशिक बाकी है. जो आदमी किसी के भेजे में गोलियां उतारने से पहले जरा भी नहीं डगमगाता वह मोहसिना से प्रणय निवेदन करते वक्‍़त हकलाता है. ये यकीन करना मुश्किल है कि जिस आदमी का राज पूरे वासेपुर पर चलता हो उसे अपनी प्रेमिका को फिल्‍म दिखाने के लिए ले जाने में कितनी मां की कसमें खानी पड़ रही हैं. पर यहां फिल्‍मी कुछ भी नहीं है. आदमी घर के बाहर कितना भी शेर क्‍यों न हो, बीवी या प्रेमिका के सामने वह सिर्फ एक पति या प्रेमी ही होता है.

जिंदगी ने अब तक फैज़ल खान को इतना तो सिखा ही दिया है कि अब जिंदगी का फलसफा उसकी बातों में झलकने लगा है. ‘इस धंधे में दो चीजों पर भरोसा नहीं करना चाहिए, एक तो खुद से पैदा होने वाले खौफ से और दूसरा किसी के साथ से’. फैज़ल खान जितना सहज रामाधीर के सामने बैठने में है उतना ही सहज किसी को गोली से उड़ाने में भी है. खौफ़ उसके चेहरे पर ढ़ूंढ़ने से भी नहीं मिलता बल्कि हर पल एक सूफियाना मुस्‍कुराहट तारी है. खालिद को गोली मारने से पहले उसका सिर मुंडवाने के बाद हंसते फैज़ल की हंसी को हम क्रूर नहीं कह पाते. अपने दुश्‍मन की आखों में आंखें डाल कर फैज़ल उसकी कह कर ही लेता है.


पर फैज़ल के दिल का कोई कोना कहीं न कहीं अभी भी इस खून खराबे से दूर आम आदमी की तरह सोचता और रिएक्‍ट करता है. शमशाद आलम की शिकायत पर जेल की सलाखों के पीछे फैज़ल खुद को कमजोर महसूस करता है और मोहसिना का गाना फ्रस्टियाओ नहीं मूरा, नर्वसाओ नहीं मूरा, एनी टाईम मूडवा को... अपसैटाओ नहीं मूरा, जो भी रोगवा है उसे सैट राइटवा करो जी, नहीं लूजिए होप जी थोड़ा फाइटवा करो जी मूरा... फाइटवा करो जी मूरा’ सुनकर सुकून महसूस करता है. फैज़ल खान गिरता है, उठता है, फिर गिरता है और फिर उठता है. यहीं उसका नायकत्‍व अपने महानतम शिखर को छूता है.

फैज़ल की एक कमजोरी भी है वह लोगों को पहचानने में अक्‍सर धोखा खाता है. चाहे फजलू हो, शमशाद आलम हो, इख़लाख या फिर डेफिनेट हर बार फैज़ल ने धोखा खाया. अब इस फिल्‍म का नायक बौलीवुडिया हीरो होता तो कतई धोखा नहीं खाता पर वह तो ठहरा एक साफ दिल आदमी. धोखा तो तय था. और यही कमजारी उसकी मौत की वजह बनी.

दरअसल हम आम लोग असल जिंदगी में कहीं न कहीं थोड़े बहुत फैज़ल खान ही हैं. हम सब अपनी जिंदगी में बहुत कुछ ऐसा करते हैं जो हम कभी नहीं करना चाहते थे. और जब तक इसका अहसास होता है, बहुत देर हो चुकी होती है. ये अहसास फैज़ल खान को भी हुआ...‘हमें कभी कुछ नहीं करना था. पता नहीं ये कैसे होता चला गया’. ... ‘हमरे अब्‍बा के पास मौका था वासेपुर वापस न आने का... पर वो आये और सब फंसता चला गया’ ‘अब हमें कुछ नहीं करना....’

      पर अभी भी फैज़ल की जिंदगी का मकसद पूरा नहीं हुआ. रामाधीर सिंह अभी जिंदा है और उसकी हत्‍या के बिना फैज़ल खान का फैज़ल खान बनना निरूद्देश्‍य है. अंतिम दृश्‍य में वो मंजर भी आता है जब तीन पीढि़यों का दोषी रामाधीर सिंह फैज़ल खान के सामने टोटल सरेंडर की मुद्रा में है. इसे अनुराग कश्‍यप के निर्देशन का जादू ही कहेंगे कि रामाधीर सिंह की हत्‍या के इस वीभत्‍स दृश्‍य को उन्‍होंने फैज़ल खान के चेहरे पर सूफियाना मुस्‍कुराहट के साथ सम्‍मोहनी बना दिया है.

      फैज़ल का मकसद पूरा होते ही उसकी जिंदगी का भी मकसद पूरा हो चला है, न अब जिंदगी के रंगमंच पर उसकी जरूरत है न वासेपुर में. ये तो पहले से ही डेफिनेट था कि कोई न कोई एक दिन फैज़ल खान की जगह लेगा, सो डेफिनेट ने ली. इसका शायद उसे अब कोई मलाल भी नहीं है...अपनी मौत के दृश्‍य में फैज़ल खान पूरी तरह शांत है, थोड़ा सा हैरान जरूर है पर जिंदगी की भीख नहीं मांगता, कोई प्रतिक्रिया नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं...बस एक मौन. और रंगमंच से एग्जिट...  

फैज़ल की मौत के साथ फिल्‍म के नायक की कहानी जरूर खत्‍म हुई है. मगर भारतीय सिनेमा में नए नायक की कहानी अभी शुरू हुई है........

Tuesday, August 07, 2012

12th Osian’s-Cine-fan Film Festival - Closing Ceremony.


The ten days long extravaganza of OSIAN's Cine-fan Film Festival was finally ended up this Sunday evening. The closing ceremony marked the presence of top film stars, national and international dignitaries and big names from world cinema at the Siri Fort auditorium. 

A larger part of this ceremony witnessed actors, directors receiving awards for their widely acclaimed and appreciated works, but this grand show was culminated into a graceful end with the screening of Rituparno Ghosh’s Chitrangada.



 Mr. Nevilly Tuli, the man behind this grand show simply mesmerized the audience through his address. While motivating people to harness their creative powers he underlined the theory of creativity and emphasized the need for institution building. Chief Minister of Delhi Ms. Sheela Dixit graced the occasion as Chief Guest. 

Dedicated to bringing the finest films from India, Asia and the Arab world, the 12th edition of the Osian’s-Cinefan Film Festival showcased an exciting and bold program of over 200 films from more than 50 countries representing the best of Asian, Arab and Indian Cinema. The conceptual framework of ‘Freedom of Creative Thought & Expression’ was the focus of this year’s festival.

The event was compeered by Ranbir shauri and Vinay Pathak. With their witty remarks they added extra spice in the dish.

The Awards Are As Follows:

Audience Award And FIPRESCI Award:

The Audience Award for the 12th Osian’s Cinefan Film Festival as well as the FIPRESCI prize went to Hansa by Manav Kaul.

Shorts Competition:

The special mention award for the Shorts Competition went to The Bus by Olgu Baran Kubilay from Turkey.
The Best Film Award for the Shorts Competition went to Silent by L. Rezan Yesilbas from Turkey.

First Features Competition:

The Special Mention Award for the First Features competition went to In April the Following Year There was a Fire from Thailand.
The Best Film from the First Features competition went to Beyond the Hill by Elmin Alper from Turkey.

Indian Competition:

The Best Film Award for the Indian competition went to Ajay Bahl’s  B.A. Pass. It also won the Best Actor award for Shadab Kamal.
The Best Actress Award in the Indian competition went to Rii from Cosmic Sex.
The Best Director Award for the Indian Competition went to Ajita Suchitra Veera, director of 
Ballad of Rustom.
The Special Jury Award for the Indian competition went to Patang by Prashant Bhargava.

Asian And Arab Competition:

The Best Film Award for the Asian and Arab competition was won by Inside (Turkey), directed by Zeki Demirkubuz.
The Best Director Award for the Asian and Arab competition went to Faouzi Bensaidi, who made Death For Sale.
The Best Actress and Actor award for the Asian and Arab competition went to Taraneh Alidousti and Mani Haghighi respectively from Modest Reception.
The Special Jury Prize for the Asian and Arab competition went to Postcards from the Zoo, directed by Edwin.
The Special Mention Award for the Asian and Arab competition went to the film Milocrorze: A Love Story and its director Yoshimasa Ishibashi.

Sunday, August 05, 2012

ओसियान फिल्‍म फैस्‍ट का नशा दिल्‍ली के सर चढ़ कर बोल रहा है.Osian cine-fan film fest is just intoxicating...



   ओसियान फिल्‍म समारोह में फिल्‍मों का कारवां धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है और फिल्‍म प्रेमी फिल्‍मों के इस कारवां का पूरा लुत्‍फ उठा रहे हैं. हर फिल्‍म एक दूसरे से शिल्‍प और कथ्‍य के धरातल पर अलग है पर सबका नशा दिल्‍ली वालों के सर चढ़ कर बोल रहा है. दीवानगी का आलम यह है कि अधिकांश फिल्‍मों के अगले शो हाउसफुल हैं. पर ओसियान भी कम दिलदार नहीं है. ओसियान के आयोजक यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि फिल्‍म के दीवानों के थियेटर के दरवाजे पर खड़े होने की सूरत में थियेटर के अंदर कोई सीट खाली न रहे. यहां तक कि सीटों के बीच के गलियारे में कार्पेट पर भी फिल्‍म की भूख लिए लोग बैठे देखे जा सकते हैं. सोने पर सुहागा यह है कि दर्शकों की मांग पर कुछ फिल्‍मों के शो रिपीट भी किए गए हैं. यूएफओ इन हर आइज और बैलेड और रूस्‍तम एसी ही फिल्‍में हैं.

अगली फिल्‍मों का शेड्यूल चैक करते सिने प्रेमी 
अपने पिछले लेख में मैंने आपको अंतिम कुछ दिनों में दिखाई जाने वाली कुछ चुनींदा फिल्‍मों का जिक्र किया था. इन्‍हीं में से कुछ फिल्‍मों को देखने का मैंने प्रयास किया. एक्‍सपेरिमेंटल सिनेमा में इन दिनों भारतीय फिल्‍मकार भी अच्‍छा काम कर रहे हैं. समारोह के छठे दिन प्रदर्शित संदीप रे की बंगाली फिल्‍म कोक्‍खो पोथ के अंग्रेजी वर्शन द साउंड ऑफ ओल्‍ड रूम्‍स ने दर्शकों का दिल जीत लिया. आप जानकर हैरान ही होंगे कुल 75 मिनट की इस डाक्‍यूमेंट्री फिल्‍म को बनाने में संदीप को कुल 20 वर्षों का समय लगा. दरअसल संदीप ने इस फिल्‍म को न केवल बनाया है बल्कि इसे हर पल जिया है. असल में संदीप ने अर्थशास्‍त्र में पीएचडी की डिग्री होल्‍डर अपने एक उम्‍दा कवि मित्र सार्थक रॉय चौधरी की जिंदगी के पिछले 20 वर्षों को लगातार कैमरे में कैद किया और फिर अंत में जो बन पडा वह द साउंड ऑफ ओल्‍ड रूम्‍स थी . अपने नाम के अनुरूप पूरी फिल्‍म में कलकत्‍ता शहर के पुराने घरों में किसी भी आम दिन में जन्‍म लेने वाली आवाजों को कैद करने की सफल कोशिश की गई है. कहा जाता है कि कला जिंदगी का आईना होती है और कला को तभी सफल कहा जा सकता है जब वह जिंदगी के उतार चढाव और संघर्षों को उसी शिद्दत के साथ आत्‍मसात कर सके. सार्थक रॉय चौधरी, उसके घर और उसकी जिंदगी के संघर्षों में झांकती यह फिल्‍म अपने आप में कलकत्‍ता शहर, वहां के बाशिंदों और चेंज इन कॉन्‍ट्यूनिटी और कॉन्‍ट्यूनिटी इन चेंज का आईना बन पड़ी है.

फिल्‍म द साउंड ऑफ ओल्‍ड रूम्‍स के निर्देशक संदीप रे
फिल्‍म के लीड करैक्‍टर सार्थक रॉय चौधरी के साथ प्रश्‍नोत्‍त्‍र सत्र में 
चीनी फिल्‍म यूएफओ इन हर आइज हमें चीन के गुमनाम से गांव से रूबरू कराती है. जहां गांव की एक लड़की को एक दिन आसमान में एक अजीब चमकती हुई चीज दिखाई पड़ती है जिसे यूएफओ समझा जा रहा है. बस इसी एक घटना का गांव के प्रशासन से जुडे लोग फायदा उठाते हैं और इस स्‍वार्थपूर्ती में अगर कुछ पिसता है तो वह है एक 30 वर्षीय अविवाहित लड़की शी के की भावनाएं, किसानों की जमीनें और वहां की संस्‍कृति. फिल्‍म में अनेकों प्रतीक बड़ी ही कलात्‍मकता के साथ प्रयोग किए गए हैं जो बहुत कुछ कहते हैं. फिल्‍म अपनी कहानी के साथ साम्‍यवादी चीन की नीतियों और वहां के बाशिंदों के अपने देश में अधिकारों और उनके हालातों को साफ करती चलती है.

वहीं आशीष आर. शुक्‍ला की साइकोलोजिकल थ्रिलर प्राग का वर्ल्‍ड प्रीमियर भी ओसियान का हिस्‍सा बना. पर प्राग अपनी उम्‍दा पटकथा और कलाकारों के बेहतरीन अभिनय के बावजूद कमजोर निर्देशन के चलते दर्शकों को ज्यादा प्रभावित न कर सकी. फिल्‍म की स्‍क्रीनिंग के बाद हुए सवाल-जवाब के सत्र में फिल्‍म की लगभग पूरी स्‍टार कास्‍ट मौजूद थी. मगर फिल्‍म के निर्देशक आशीष शुक्‍ला ऑडियंस के ज्‍यादातर सवालों के संतोषजनक उत्‍तर नहीं दे पा रहे थे. संभवतया जिस कन्‍फ्यूजन का शिकार यह फिल्‍म हुई उससे निर्देशक अभी तक जूझ रहे हैं. हां, फिल्‍म की सिनेमैटोग्राफी के बढि़या काम को अगर छोड़ दें तो फिल्‍म ने अधिकांश दर्शकों को निराश ही किया. वहीं सातवें दिन मानव कौल की बाल फिल्‍म हंसा की सादगी और बाल कलाकारों के जबरदस्‍त अभिनय ने दर्शकों को अभिभूत कर दिया. विदेशी फिल्‍मों के बीच नैनीताल के पास एक गांव में बनी इस फिल्‍म ने पहाड़ी जिंदगी की ताजा हवा का अहसास कराया. मानव कौल एक उम्‍दा फिल्‍मकार हैं और अपने काम का लोहा मनवा चुके हैं. हंसा उनकी झोली में एक और नायाब हीरा ही होगी. मानव हंसा को अगले कुछ समय में कमर्शियल स्‍तर पर रिलीज करने का विचार बना रहे हैं. किसी भी फिल्‍मकार के लिए लीक से हटकर बनी फिल्‍मों को कमर्शियल स्‍तर पर रिलीज करना अपने आप में बड़ी चुनौती वाला काम है. फिल्‍म समारोहों में तो ऐसी फिल्‍मों को काफी सराहा जाता है मगर जब जनता के बीच थियेटर पर उतरती हैं तो अपना जादू नहीं बिखेर पातीं. सवाल है कि क्‍या दर्शक अच्‍छी फिल्‍में पसंद नहीं करते. इसका जवाब देते हुए मानव कौल कहते हैं कि दर्शकों की पसंद का आयाम बहुत बड़ा है और असल मुद्दा उन्‍हें अच्‍छा मनोरंजन उपलब्‍ध कराना है. अगर हम उन्‍हें स्‍वस्‍थ मनोरंजन देने में सक्षम हैं तो जरूर वो सिनेमा घर तक ऐसी एक्‍सपेरीमेंटल फिल्में देखने पहुंचेंगे. पर इसमें अभी वक्‍त लगेगा.

 फिल्‍म बारोमास की स्‍क्रीनिक से पहले फिल्‍म के निर्देशक धीरज मेश्राम
और साथ में हैं बैंजामिन गिलानी, सीमा बिस्‍वास और फिल्‍म के अन्‍य कलाकार
इस बार के फिल्‍म फैस्‍ट में नए प्रयोगधर्मी युवा निर्देशकों की फिल्‍में छाई हुई हैं जो सिनेमा के सुनहरे भविष्‍य की ओर इशारा कर रहा है. प्रशांत भार्गव की ‘पतंग’, धीरज मेश्राम की ‘बारोमास’, आशीष शुक्‍ला की प्राग, अजय बहल की ‘बी.ए. पास’, मानव कौल की ‘हंसा, शामिल हैं. यही नहीं विदेशी फिल्‍मों की श्रेणी में भी तमाम युवा निर्देशक छाए हुए हैं. समारोह के नौवें दिन फिलीपींस की डॉक्‍यूमेंट्री फिल्‍म ‘बेबी फैक्‍ट्री’ ने दर्शकों को हर फ्रेम के साथ हैरत में डाला. बेबी फैक्‍ट्री दरअसल फिलीपींस की राजधानी मनीला में एक सस्‍ते अस्‍पताल की कहानी है जहां सबसे अधिक बच्‍चों की डिलीवरी होती है. इसीलिए इस फिल्‍म का नाम बेबी फैक्‍ट्री रखा गया. फिल्‍म में गर्भवती महिलाओं की डिलीवरी से लेकर उनके हॉस्‍पीटल से डिस्‍चार्ज होने तक के दृश्‍यों को पूरी वास्‍तविकता के साथ दिखाने में फिल्‍म के युवा निर्देशक यूडार्डो रॉय जूनियर सफल रहे.

फिल्‍म गैंग्‍स ऑफ वासेपुर के प्रदर्शन के दौरान अनुराग कश्‍यप फिल्‍म के कलाकारों के साथ
इस सब के बीच अगर किसी चीज के लिए फिल्‍मों के दीवाने पागलपन की हद तक पहुंच गए तो वह थी अनुराग कश्‍यप की फिल्‍म गैंग्‍स ऑफ वासेपर- ।।. यह फिल्‍म देश भर में 8 अगस्‍त को रिलीज हो रही है. गैंग्‍स ऑफ वासेपुर पार्ट वन के प्रशंसकों के लिए यह दुर्लभ मौका था. शनिवार शाम को इस फिल्‍म के दोनों भाग एक साथ दिखाए गए और फिल्‍मों के दीवाने दो घंटे पहले से कतार में देखे जा सकते थे. फिल्‍म तीन दिन पहले टिकट खिड़की खुलते ही हाउसफुल हो चुकी थी. पर स्‍क्रीनिंग के दौरान जिसे जहां जगह मिली एडजस्‍ट हो गया. सिरी फोर्ट के सभागार एक में तिल रखने की जगह तक नहीं थी. ये बात गौर करने वाली थी कि इस फिल्‍म को देखने आए सैकडों लोग ऐसे थे जिन्‍होंने पूरे फैस्‍टीवल के दौरान एक भी फिल्‍म नहीं देखी थी. ऐसी विशुद्ध रूप से कमर्शियल फिल्‍म इस फिल्‍म समारोह में थोड़ी मिसफिट तो लगी पर दर्शक अगर ऐसी फिल्‍म के बहाने ही फिल्‍म फैस्‍ट तक पहुंचे इसे आयोजकों की सफलता माना जाना चाहिए. पूरे फिल्‍म समारोह में शायद ये एकमात्र फिल्‍म थी जिसके दौरान खूब सीटियां बजीं और दर्शकों ने तालियां पीटीं. ये सब दूसरे देशों से आए फिल्‍म प्रेमीयों ओर ज्‍यूरी मेंबर्स के लिए एक नया अनुभव तो था मगर वो भी इस मस्‍ती का हिस्‍सा बनकर खुश थे. 
                     
समारोह के अंतिम दिन कुछ खास फिल्‍में जिनका दर्शकों को बेसब्री से इंतजार है उनमें मणि कौल की ‘सिद्धेश्‍वरी’, बिक्रमजीत गुप्‍ता की ‘द स्‍टैग्‍नैंट’  रितुपर्णो घोष की ‘चित्रांगदा- द क्राउनिंग विश’ शामिल हैं. रविवार शाम 7 बजे सम्‍पन्‍न होने जा रहे समापन समारोह में एशियन-अरब कैटेगरी, इण्डियन कैटेगरी और फर्स्‍ट फीचर्स कैटेगरी में सर्वश्रेष्‍ठ फिल्‍मों को पुरस्‍कृत किया जाएगा और तीनों पुरस्‍कृत फिल्‍मों को रात 10 बजे से सिरी फोर्ट के अलग अलग सभागारों में दिखाया जाएगा.  

लेखक से arya82@gmail.com अथवा 09711337404 पर संपर्क किया जा सकता है.  

Saturday, August 04, 2012

12 वां ओसियान फिल्‍म महोत्‍सव : दिल्‍ली के दिल में सिनेमा का समंदर


Published in Pravakta.com
and   http://www.pravasiduniya.com/delhi-ke-dil-mai-cinema 

ओसियान एक बार फिर दिल्‍ली की जमीन पर लौटा है और सिरी फोर्ट ऑडिटो‍रियम एक बार फिर गुलजार है देश दुनिया की नायाब फिल्‍मों से. फिल्‍मों का समंदर सिरी फोर्ट में लहरा रहा है और फिल्‍मों के दीवाने इसमें डूब डूब कर मोती चुन रहे हैं. लगभग 50 देशों की 200 से अधिक फिल्‍मों के साथ 12 वां ओसियान फिल्‍म समारोह भारतीय, एशियाई और अरब देशों के सिनेमा का एक अद्वितीय मंच बन कर उभर रहा है. पिछले दो दिनों से चल रहे इस फिल्‍म महोत्‍सव में भाग ले रही विदेशी फिल्‍मों और इन फिल्‍मों से जुड़े लोगों का जोश खरोश के साथ हिस्‍सा लेना दिल्‍ली को अंतराष्‍ट्रीय फिल्‍म महोत्‍सव के लिए सबसे मुनासिब जगह साबित करता है. जहां न केवल विदेशी मेहमान इस महोत्‍सव का हिस्‍सा बनकर कुछ नया महसूस कर रहे हैं वहीं दिल्‍लीवाले भी पूरे दिल से इस फैस्‍ट का लुत्‍फ उठा रहे हैं. इस बार के महोत्‍सव की थीम ‘रचनात्‍मक विचार और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता’ रखी गई है.

पूरे परिसर में आप फिल्‍म निर्देशकों, कलाकारों और फिल्‍मों की नुक्‍ताचीनी करने वाले ब्‍लॉगचियों को इधर से उधर होते देख सकते हैं. मजे की बात ये है कि आप फिल्‍म देख देख कर थक सकते हैं पर ओसियान आपको फिल्‍म दिखाने से नहीं थकेगा. एक समय में पांच अलग-अलग स्‍क्रीन पर फिल्‍में चल रही हैं. लेकिन हम एक साथ पांच जगह नहीं हो सकते. सो मामला चूजी होने का हो जाता है. जिन फिल्‍मों की तारीफ पहले से सुन रखी है उन्‍हें अपने शेड्यूल में शामिल करने में तो कोई कठिनाई नहीं है. पर असल रोमांच है अनजानी और अनसुनी फिल्‍मों को अचानक से ट्राई करने में. कुछ फिल्‍मों के ब्रोशर से थोड़ी बहुत जानकारी मिल सकती है पर कुछ के बारे में नाम से ज्‍यादा कुछ नहीं. रिस्‍क लेकर ट्राई करने पर कभी कभी जैकपॉट भी हाथ लग जाता है.

ऐसे मौकों पर मेरी प्राथमिकता हमेशा उन फिल्‍मों के प्रति रहती है जो आसानी से न देखी जा सकती हों या फिर बड़े पर्दे पर न देख पाने की संभावना हो. अंतराष्‍ट्रीय फिल्‍म समारोह में जाकर भी अगर पॉपुलर हिंदी फिल्‍में ही देखी तो क्‍या ख़ाक सिनेमा देखा. एक ही जगह जब ईरानी, ताईवानी, जापानी, जर्मन, फ्रेंच, अल्‍जीरियाई, तुर्किश, कोरियाई, चीनी और इण्‍डोनेशियाई फिल्‍में देखने को मिल जाएं तो किसी सिनेमा प्रेमी के लिए इससे बड़ी सौगात नहीं हो सकती.

इस बार ओसियान की शुरूआत निर्देशक कैईची सातो की एक जापानी एनीमे‍टिड फिल्‍म ‘असुरा’से हुई है. एनीमेशन और एनीमे‍टिड फिल्‍में और खासकर जापानी एनीमेटेड फिल्‍में समारोह में खूब पसंद की जा रही हैं. समारोह के तीसरे दिन ऐसी ही एक और एनीमेटेड फिल्‍म Tatsumi देखने का मुझे मौका लगा. जापानी लोग पूरी दुनिया में एनीमेशन के क्षेत्र में हो रहे प्रयोगों से हटकर एनीमेशन के माध्‍यम से गंभीर सिनेमा तैयार करने में अपना लोहा मनवा चुके हैं. तात्‍सुमी असल में एनीमेशन में एक मंगा आर्टिस्‍ट योशिहिरो तात्‍सुमी की ऑटोबायोग्राफी है. योशिहिरो ने गेकिगा शैली में एनीमेशन के जरिए अपनी कहानियां दुनिया के सामने रखीं. तात्‍सुमी योशिहिरो के जीवन के घटनाक्रमों और उनके कामिक्‍स की कहानियों का अनूठा कोलाज है. जो अपने साथ जापान की संस्‍कृति और वहां की जीवन शैली में हमें झांकने का भरपूर अवसर देती है.

द ओरेंज सूट की स्‍क्रीनिंग के बाद निर्देशक दारियुश मेहरजुई
दर्शकों से बातचीत करते हए
कमोबेश हर विदेशी फिल्‍म आपको अपने देश की संस्‍कृति, वहां के लोगों की सोच, रवायतों और आदतों से रू-ब-रू करती चलती है. यहां एक बात विशेष रूप से कहने की है कि फिल्‍में विदेशी भाषा में हाने के बावजूद सबटाइटल्‍स के साथ बिल्‍कुल अपरिचित नहीं लगतीं. यहां तक की एशियाई और अरब देशों के बहुत से मसले और लोगों की जीवन शैली के बहुत से हिस्‍से एक जैसे लगते हैं. शायद यही वजह है कि जब मैं दारियुश मेहरजुईकी ईरानी फिल्‍म ‘द ऑरेंज सूट’ देखता हूं तो शहरी कूड़े कचरे की समस्‍या को केन्‍द्र में रख कर बनाई गई यह फिल्‍म मुझे किसी भी भारतीय शहर की कचरे की समस्‍या के लिए कम प्रासंगिक नहीं लगती. एक पल के लिए लगता है कि फिल्‍म ईरान में नहीं बल्कि यहीं कहीं दिल्‍ली में शूट की गई है. ‘द ऑरेंज सूट’ कहानी है एक ऐसे फोटो जर्नलिस्‍ट की जिसे कचरा साफ करने वाले स्‍ट्रीट स्‍वीपर के काम से इश्‍क हो जाता है और वह बड़े चाव से स्‍वीपर की नौकरी हासिल कर ईरान की गलियों को साफ करता है. जिस मैंटल क्‍लटर की बात फिल्‍म का नायक हामिद ओबेन करता है उसी मेंटल क्‍लटर से किसी भी देश की शहरी जिंदगी परेशान है. ओबेन शहर की गंदगी को साफ करते हुए अपनी आत्‍मा को शुद्ध करने की कोशिश में है. फिल्‍म के शीर्षक में ऑरेंज सूट स्‍ट्रीट स्‍वीपर की वर्दी के रंग से आया है. यूं तो मेहरजुई की इस फिल्‍म में एक साथ कई मुद्दे समानांतर रूप से चलते हैं पर जिस सादगी से उन्‍होने शहरी कचरे की समस्‍या को दिखाया है वह वाकई काबिले तारीफ है.

इस बार के फिल्‍म फैस्‍ट में जहां सैक्‍स और सेंसरशिप पर खुल कर चर्चा हो रही है वहीं जापानी सॉफ्टकोर पोर्नोग्राफिक थियेटरिकल फिल्‍म शैली में पिंक फिल्‍में भी चर्चा के केन्‍द्र में हैं. गो गो गो सेकेंड टाइम वर्जिनएक्‍सटेसी ऑफ एंजेल्‍सद स्‍मैल ऑफ करी एण्‍ड राइस और ‘कॉस्मिक सैक्‍स’जैसी फिल्‍मों का सिनेमा प्रेमियों को इंतजार है.

अपने पसंदीदा कलाकारों को समारोह में अपने अगल बगल में देख पाना यकीनन इस सरूर को और बढ़ा देता है. पर मेरी राय में फिल्‍म समारोह का फायदा अपने चहेते कलाकारों से ज्‍यादा नई प्रतिभाओं से रूबरू होने और चुनींदा फिल्‍मों पर समय लगाने के लिए उठाना चाहिए. इस समारोह में मणि कौल की कुछ फिल्‍में ऑरिजनल प्रिंट के साथ आ रही हैं. जिन्‍हें देखना वन्‍स इन ए लाइफ टाइम अनुभव होगा. मणि कौल की ध्रपद और सिद्धेश्‍वरी कुछ हट कर उम्‍दा देखने वालों के लिए एक वर्चुअल ट्रीट से कम नहीं है. वहीं भारतीय खंड में कुछ चुनींदा फिल्‍में दर्शकों की प्राथमिकताओं पर हैं. दुनियां भर में धूम मचा चुकी प्रशांत भार्गव की फिल्‍म पतंग, अजय बहल की बी.ए. पास, अजीता सुचित्रा वीरा की ‘बैलेड ऑफ रूस्‍तम’ और अमिताभ चक्रवर्ती की कॉस्मिक सैक्‍स  दर्शकों द्वारा खूब सराही जा रही हैं.

अगर आप अभी तक इस महोत्‍सव का हिस्‍सा नहीं बन पाए और बहुत कुछ मिस कर चुके हैं तो भी निराश न हों क्‍योंकि अभी अगले कुछ दिनों में ऑरेंज सूट ( 31 जुलाई को दूसरी बार दिखाई जाएगी), शांघाई, प्राग, 10 एमएल लव, हंसा, नो मैन्‍स जोन, दिस इज नॉट ए फिल्‍म, एक्‍सप्रैस, बैलेड ऑफ रूस्‍तम, डैथ फॉर सेल, लेबिरिन्‍थ, बेबी फैक्‍टरी और कुछ शॉर्ट फिल्‍मों समेत ढ़ेरों उम्‍दा फिल्‍में दिखाई जाएंगी. यही नहीं 5 अगस्‍त तक नियमित रूप से देश दुनियां के‍ फिल्‍मकार और सिनेमा जगत से जुड़ी हस्तियां सिनेमा के तमाम पहलुओं पर चर्चा करते रहेंगे. फिल्‍म समारोह की और बातें आपसे होती रहेंगी तब तक मैं आपके लिए इस समुद्र मंथन में से कुछ और मोती चुन कर लाता हूं. अलविदा.  

फिल्‍म समारोह से जुड़ी अन्‍य जानकारियों के लिए ओसियान की आधिकारिक वेबसाइट http://cinefan.osians.com/ को विजिट करें। 

सिनेमा की बात ही क्‍यों ?

फिल्‍में हमेशा से मेरे दिल के करीब रही हैं. बचपन से ही खेलकूद से ज्‍यादा फिल्‍मों ने मुझे अपनी ओर खींचा है. पता नहीं क्‍या जादू सा होता था टीवी पर फिल्‍म देखते ही. फिर कुछ बड़ा होने पर किताबें पढ़ने का शौक लगा. पर फिल्‍में अभी भी दिमाग पर हावी रहती थीं. और कोई भी अच्‍छी चीज पढ़ते हुए उसे दिमाग खुद-ब-खुद फिल्‍म की शक्‍ल में देखना शुरू कर देता था. इस बीमारी का इलाज अभी भी नहीं हुआ है. शायद कुछ ख्‍यालों को फिल्‍म की शक्‍ल देकर ही हो पाएगा. पर हां, यहां इस ब्‍लॉग को शरू करने का विचार उस समय आया जब मैंने अपने शहर दिल्‍ली में फिल्‍म और सिनेमा को लेकर हिन्‍दी में हो रही पत्रकारिता और लेखन में पाया कि इक्‍का दुक्‍का लोगों को छोड़कर कहीं कुछ मतलब का नहीं लिखा जा रहा है. अच्‍छी फिल्‍में आती हैं और चली जाती हैं. फिल्‍म के दीवानों को कई बार उनकी ख़बर तक नहीं लग पाती. बस, ये ब्‍लॉग इसी दर्द की दवा के रूप में कुछ काम कर सके तो शायद उन फिल्‍मों का कर्ज उतार पाउंगा जो बचपन से मेरी हमजोली रही हैं. अभी इतना ही........