जिंदगी को एक उत्सव की तरह जीने और गीत की तरह गुनगुनाने के फ़लसफ़े पर हिन्दी
सिनेमा ने पहले भी कई अध्याय लिखे हैं पर ‘बर्फी’ जिंदगी के हर एक पल को हर हालत
में मुस्कुराहट और खुशमिज़ाजी के साथ जीने का नया सबक सिखाती है. प्यार अगर निश्छल
हो तो जिंदगी कठोर होने के बावजूद बोझिल नहीं होती. अनुराग बसु की ‘बर्फी’ दार्जिलिंग
की वादियों में रूई जैसे नरम और निश्छल प्यार की मीठी सी छुअन से पूरे दो घंटा पैंतीस
मिनट तक हमें सराबोर रखती है और एक बार फिर शहर की भागम-भाग से दूर ले जाकर सोचने
का मौका देती है कि जो जिंदगी हम जी रहे हैं क्या उसे वैसे ही जिया जाना चाहिए ?
फिल्म शुरू होने के
बाद कुछ ही पलों में ही हमें अहसास होने लगता है कि जिंदगी कितनी ख़ूबसूरत और पवित्र
है. बस हमें जीना आना चाहिए. इसके रास्ते में आने वाली रुकावटों और असफलताओं पर
बर्फी की तरह ही बड़ी सी स्माइल देकर आगे बढ़ जाना चाहिए. जिंदगी लाख कोशिश करे
पर हम जिंदगी के लिए अपना प्रेम कम न होने दें. हर पल को खुल कर जिएं, हर पल में
मुस्कुराएं, हमेशा दौडें नहीं बल्कि ठहर कर वक्त की हथेली पर छोटे-छोटे पलों को
रखकर उन से बात करें.
फिल्म के तीन प्रमुख पात्रों में से एक बर्फी (रणबीर कपूर) गूंगा और बहरा है और दूसरी झिलमिल (प्रियंका चोपड़ा) ऑटिज़्म से ग्रस्त है. डिसएबल्ड लोगों की जिंदगी के बारे में नॉमर्ल लोगों की अवधारणा और तमाम मिथकों को तोड़ती यह फिल्म डिसएबल्ड लोगों को करीब से समझने का एक नया नज़रिया देती है. पर ये फिल्म अपंगता या असमर्थता के बारे में कतई नहीं है. दार्जिलिंग की पहाडि़यों में रहने वाला मर्फी या फिर बर्फी बोल और सुन नहीं सकता पर इतना जिंदादिल है कि न वह खुद अपनी असमर्थताओं को महसूस करता है न ही किसी और को करने देता है. बर्फी गूंगा जरूर है पर खामोश नहीं है, वह बहरा है पर सबके दिल की बात साफ-साफ सुन सकता है. बर्फी के हाव-भाव इतने स्पष्ट और मुखर हैं कि उसे संवादों की जरूरत ही नहीं है. पूरी फिल्म में बर्फी ने बमुश्किल दो से तीन बार सिर्फ अपना नाम बोलने की नाकाम सी कोशिश की है पर वह हमें हर दृश्य में सुनाई देता है. बर्फी की आंखे और चेहरे की भंगिमाएं संवाद कौशल की नई परिभाषा हैं.
पूरी फिल्म की कहानी मिसेज
सेनगुप्ता (इलियाना डीक्रूज) की जुबानी फलैश बैक में चलती है. कहानी बर्फी, श्रुति और झिलमिल की
आपस की दोस्ती और प्यार के संबंधों पर आधारित है. प्रेम त्रिकोण होते हुए इसे
प्रेम त्रिकोण नहीं कहा जा सकता क्योंकि ये एक सीधे और साफ दिल के लोगों की कहानी
है जहां वे दिमाग से नहीं दिल से काम लेते हैं. बार बार कमजोर पड़ते हैं पर टूटते
नहीं हैं. एक दिन एक अमीर घर की बंगाली लड़की श्रुति (इलियाना डि क्रूज) को देखते
ही बर्फी दिल दे बैठता है और श्रुति भी बर्फी की सादगी और जिंदादिली के साथ पूरी
जिंदगी बिताने को तैयार है. पर श्रुति को न चाहते हुए भी बर्फी की जिंदगी से जाना
पड़ता है और फिर बर्फी की मुलाकात होती है अपने बचपन की दोस्त झिलमिल से जिसे
बरसों पहले अपनी बीमारी के चलते परिवार के लोगों ने खुद से दूर कर दिया था. झिलमिल
जिस प्यार और अपनेपन से बरसों से वंचित रही है वह उसे बर्फी से मिला. मगर एक दिन
श्रुति फिर बर्फी की जिंदगी में लौट आती है. फिल्म का कथानक इन पात्रों के
इर्द-गिर्द बड़ी सादगी से बुना गया है.
ऐसा नहीं है कि ‘बर्फी’ कोई कालजयी फिल्म
है या इससे बेहतर फिल्म अब बन ही नहीं सकती पर ‘बर्फी’ में अनुराग बसू ने अपने
निर्देशन से जो कर दिखाया है वह भारतीय सिनेमा में अपने अलहदा ट्रीटमेंट के लिए
हमेशा याद रखी जाएगी. दो-दो डिसएबल्ड पात्रों को केन्द्र में रखकर और लगभग न के
बराबर संवादों वाली एक हंसती खिलखिलाती फिल्म बनाना यकीनन आसान काम नहीं है, पर अपनी
जानदार कहानियों के लिए पहचान रखने वाले अनुराग बसु ने यह एक बार फिर कर दिखाया
है. बर्फी जवाब है उन
फिल्मकारों के लिए जो सैक्स और अश्लीलता को दर्शकों की मांग कहकर घटिया फिल्में
परोस रहे हैं. दर्शक पेट भर कर अच्छा सिनेमा देखना चाहता है ...पर आप अच्छा
सिनेमा बनाएं तो सही. फिल्म को परफैक्ट कहना तो शायद गलत होगा क्योंकि अनुराग लाख चाहने के बावजूद
कई पेच ढ़ीले छोड़ गए हैं. जगह-जगह पर जरूरत से ज्यादा लंबे दृश्य और बार-बार फलैशबैक
और वर्तमान के झटके खाती फिल्म दर्शकों को दिमाग पर जोर डालने के लिए मजबूर करती
दिखी. कहीं-कहीं अनुराग जबरदस्ती दृश्यों को और मीठा बनाने की कोशिश करते दिखे.
फिल्म में झिलमिल की किडनैपिंग का सीक्वेंस थोड़ा गफलत से भरा था और अंतिम दृश्यों
में नाटकीयता झलकती है. पर इन कमजोरियों के बावजूद दर्शक ‘बर्फी’ को एक मीठा-मीठा
एंटरटेनमेंट मान रहा है. अकेला बर्फी अपने कंधे पर पूरी फिल्म को लेकर जो दौड़
गया है.
पर्दे पर बर्फी
जिंदगी का महाकाव्य रच रहा है. बर्फी हमें सिखाता है कि खुशियां छोटी-छोटी चीजों
में होती हैं, हथेली भर पानी में भी जहाज तैरते हैं और कागज की चिडिया के भी पंख
होते हैं. बर्फी की प्यारी सी मुस्कुराहट बार बार हमारे दिल के तारों को झनझनाती
है. लेकिन बर्फी की एक प्रोब्लम है उसे लगता है कि लोग एक दिन उसे छोड़ कर चले
जाएंगे इसलिए वह अपने दोस्तों की परीक्षा लेता है लेकिन दोस्ती भी पूरे दिल से
निभाता है. प्यार के बदले प्यार चाहता है और जब नहीं मिलता तो दिल तो टूटता है...
पर ज्यादा देर के लिए नहीं क्योंकि बर्फी सिर्फ और सिर्फ मुस्कुराकर जिंदगी
जीना जानता है. फिल्म के एक दृश्य में जब श्रुति पहले से सगाई के बंधन में बंधी
होने कारण उसका प्यार ठुकरा देती है तो बर्फी अपना दिल बच्चे की तरह खोल कर रख
देता है. शहर के क्लॉक टावर पर चढ़कर घडी की सुंइयों को 15 मिनट पीछे खिसका कर वो
श्रुति को कहता है कि ‘तुम भूल जाओ वो सब जो मैंने अभी कहा है, मानो कि मैं
तुमसे कभी मिला ही नहीं, मान लो कि मैंने तुमसे कुछ कहा ही नहीं, मान लो तुमने नया
दोस्त बनाया है जिसका नाम बर्फी है, मान लो कि तुम्हारी शादी में बर्फी नाच रहा
है....और जब इतना कुछ मान ही लिया है तो मान भी जाओ और मुस्कुराकर हाथ हिलाओ’
इस फिल्म को दिल छू
लेने वाले उन जादुई दृश्यों के लिए बार-बार देखा जा सकता है जिनमें बर्फी स्वैटर
में हाथ डालकर अपना अदृश्य दिल निकाल कर श्रुति को देता है, या फिर जब-जब अंगूठे
और तर्जनी को फैला कर बार बार मुस्कुराना सिखाता है. उसकी मुस्कान मारक है और
सीधे दिल में उतर जाती है. पुलिस इंसपैक्टर (सौरभ शुक्ला) के साथ बार-बार होने
वाली दौड़ के दृश्य बर्फी के अंदर छिपे चार्ली चैपलिन या फिर मिस्टर बीन की याद दिलाते
हैं और खूब गुदगुदाते हैं. चुनौतीपूर्ण किरदारों के बावजूद बेहरीन अभिनय के लिए रणबीर
कपूर और प्रियंका चोपड़ा की जितनी भी तारीफ की जाए कम है. साउथ सायरन इलियाना डीक्रूज ने हिंदी फिल्मों में जोरदार दस्तक दी है. फिल्म के
संवाद प्रभावी है और जहां संवाद नहीं हैं वहां बैकग्राउंड में चलता संगीत हर दृश्य
में जान फूंक देता है. स्वानंद किरकिरे, नीलेश मिश्र, सईद
कादरी और आशीष पंडित के गीत और प्रीतम का संगीत भी बर्फी की
तरह ताजगी से भरे हुए हैं. इस फिल्म को रवि वर्मन की सिनेमैटोग्राफी के
लिए भी बार-बार देखा जा सकता है. दार्जिलिंग जैसी खूबसूरत जगह को इससे पहले शायद
ही इतनी खूबसूरती से पर्दे पर देखा जा सका हो.
बर्फी जैसी फिल्में बॉलीवुड
में रोज-रोज नहीं बनती क्योंकि ऐसी फिल्में दिमाग लगा कर नहीं बल्कि सिर्फ और
सिर्फ दिल से बनाई जा सकती हैं. ये विशुद्ध रूप से सिनेमा है. ये जादुई फिल्म आपको
भी भीतर तक प्यार के दरिया में डूबकर एक रूहानी सुकून का अहसास करने का मौका जरूर
देगी.
मैं फिल्मों को पांच में
से अंक देने की प्रथा में यकीन नहीं रखता क्योंकि कुछ चीजों को पैमाने पर नहीं
रखा जा सकता और ‘बर्फी’ उनमें से एक है. बस इतना ही कहूंगा कि यदि जिंदगी को जीने
का अंदाज सीखना है तो एक बार बर्फी से मिल आइये. वो आपका इंतजार कर रहा है...
और जिंदगी कितनी भी टफ हो
हमेशा याद रखें ‘डोन्ट वरी बी बर्फी’ J